मेरे अकथ, अव्यक्त भावो ने
विलग कर दिया इस आत्मा को
बाहरी दुनिया से

मेरा सुख-दुख सब
मुझमें ही वास करता है
मेरे अंतर्मन से ही
मैं कभी अत्यंत हर्षित
तो कभी अत्यंत द्वेषित होती हूँ

मेरे विचार से,
निसंदेह!
इसीलिये ही मुझे
कभी जग की हर कृति लुभावनी लगती है
तो कभी हर सृजन में
केवल शून्यता नजर आती है

कदाचित,
इसीलिये ही मुझे
कभी सूक्ष्म से सूक्ष्म
बात रौंद देती है तो
कभी गहन से गहन बात भी
अनछुई सी लगती है

अधिकांशतः,
मैं समझ नहीं पाती हूँ
कि व्यक्त करना बेहतर है
या स्वयं को स्वयं के भीतर ही सिकोडने रखना
बस मेरे इस मनोविकार का
मुझे आज तक कोई सहज उत्तर नहीं मिला
और मैंने दूसरे विकल्प को चुना;
अव्यक्त करना,
जो मुझे मेरे असंगत संसार में ही
बसे रहने को प्रोत्साहित करता है
और दिन-प्रतिदिन इस बाहरी दुनिया से
मुझे विच्छिन्न ही करता जाता है

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